Wednesday, January 29, 2014

मैंने कब शब्दों में गुंथकर ,
मीठी सी कोई पंक्ति रचकर,
दुनिया के टेढ़े दांवों को,
सीधे से बतलाया माँ ??
 
मैंने कब कातर नज़रों से
या सूखे कंपते अधरों से 
अपने मन का मर्म तुम्हें
जैसा वैसे दिखलाया माँ ??
 
मै ही सब कविताओं  में थी
किस्सों और आशाओं में थी
जाने कैसे जान गयी तुम
मैंने कब दर्शाया माँ ??
 
आँखों का अनदेखा पानी
मेरे मन की अकह कहानी
तुमने कैसे पूरी सुन ली
मैंने कब समझाया माँ ??

Tuesday, October 29, 2013

सुनो, मिल जाना तुम

सुनो, मिल जाना तुम।
मैं बिना बताये किसी दिन
तुम्हारे मुहल्ले से गुज़रूं
और तुम्हारा ्दरवाज़ा खटखटाये बगैर
बहुत ऊंची आवाज़ में बोलते हुए 
धीमे-धीमे पग बढाऊं
तो अपनी छत पर, चौराहे पर,नुक्कड़ पर,
कहीं भी, कहीं तो,
दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।

तुम्हारे दोस्त के भाई की शादी है, 
शायद आओ तुम
मैं हनुमान मन्दिर जा रहीं हूं ,
कऱीब है न तुम्हारे घर के,
शायद आओ तुम
वो सब भी आ रहे हैं
जो प्रिय हैं तुम्हें,
शायद आओ तुम
मैं दिन भर में कई जगह जाती हूँ,
कहीं भी, कहीं तो,
दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।

तुम्हारी यादों को
प्लास्टिक की तरह समेटा है मैंने
एक बूंद भी नहीं रिसती,
और पुरानी भी नहीं पड़ती,
किसी शहरी मकान के स्टोर रूम जैसे अपने मन में
कभी उनींदें भड़भड़ाते हुए पहुँचुं
तो दिख जाना तुम,
सुनो, मिल जाना तुम।

Thursday, October 24, 2013

मेरी बद्दुआ….

इक शख्स को बद्दुआ दी थी मैने इक बार,
उस रात मैं तकिया भर रोई थी...
फ़िर बहुत सारी सूखी सुबहों के बीच
भूल गयी मैं,
नाखून से उस रात फाडा हुआ
चादर का कोना...
लेकिन समय नहीं भूला
और नहीं भूली निर्जीव कहलाती कोई भी वस्तु
जिस पर एक टूटी फूटी सड़क बनाई थी मैंने उस रात...
आज ही एक डाक से 
आया है उसके पूरे होने का संदेसा
और स्याही के थप्पडों से नींद खुली है तो देख रही हूँ
साथ में संलग्न की गयी है
मेरी बद्दुआ….

Monday, October 21, 2013

जीव में निर्जीव सी निस्तब्धता

जीव में निर्जीव सी निस्तब्धता है ,
क्या हुआ जो वायु में अस्वस्थता है ?

हर तूफानी लहर पर घर बाँधने की ,

जलजलों पर एक नौका डालने की ,
समय सी जो हाथ पर से हो फिसलती ,
रेत पर उस एक पौधा पालने की,
एक ज़िद को साधने में व्यस्तता है.
घोर तम को चन्द्रमा भी ओढ़ सोया
देख कर रवि का विहाग भी खूब रोया 
पर बिलखती हुयी आशा में भी उसने
रवि की किसी किरण का ही बीज बोया
प्रलय में निर्माण की ही पुष्टता है 

पर्वतों की फ़तेह को सब मान लेना
कुछ फ़र्लांगो को ही जीवन जन लेना ,
बैठ जाना याद कर बातें पुरानी,
और उस पर धनुष -भृकुटी  तान लेना
चिर बुलाते ख्सितिज की दुर्लक्ष्ता  है 

Sunday, October 20, 2013

मैं यह कविता लिख रही हूँ ...

मैं यह कविता लिख रही हूँ 
क्योंकि मैं कह नहीं सकती तुमसे 
की तुम्हारे अलसाये सपनों को 
रात-रात भर जाग कर संवारती हूँ मैं 
सब के लिए माँग लेने के बाद 
तुम्हारे लिये अलग से धूप जलाती हूँ मैं 
पिछवाड़े वाले आँगन के नल जैसे 
दिनभर रिस्ते रहते हैं 
तुम्हारे सपने 
डूबते उबरते 
तुम्हारी आँखे 
उनका पत्थरपन 
और मैं पुरानी धोती की चिंदियों से 
बाँध-बाँध कर 
कोशिश करती रहती हूँ 
कि तुम्हें मेरी आँखों से दिख जाये 
तुम्हारी रूह 
सिसकती धूप जैसी 
तुम्हारा मन 
पहाड़ी नदियों जैसा 
और तुम 
देख सको खुद को जैसे मैं देखती हूँ तुम्हें 
खूबसूरत और सम्पूर्ण |  

Saturday, September 21, 2013

एक शख्स का चेहरा...


मैं देख रही हूँ एक शख्स का चेहरा 
जिसकी आंखे, नाक और होंठ 
बिलकुल मेरे जैसे हैं 
लेकिन 
बहुत अनबूझा जान पड़ता है वो 
जैसे किसी माचिस के पूरा जल जाने पर 
उसका अक्स बाकी रह गया हो 
सिकुड़ा , काला , विभत्स 
मेरे चेहरे से गायब हूँ मैं उसी तरह 
और बच गयी है एक परछाई 
डर, उलझन और कश्मकश की 
और नए-नए घाव जैसा 
रिस रहा है सम्पूर्णता का भ्रम 
हर बिखरे टुकड़े से 
बन रहे हैं असंख्य नए चेहरे , अनजान 
हँसते हुए मुझपर , लड़ते हुए अपने ही बिम्ब से 
और इस हो-हल्ले में उँगलियाँ बांधे 
मैं खोज रही हूँ अपना चेहरा
छू - छूकर …